द्वारा डैनियल पाइप्सन्यूयार्क सन्7 फरवरी, 2006http://hi.danielpipes.org/article/3380
मौलिक अंग्रेजी सामग्री: Cartoons and Islamic Imperialismहिन्दी अनुवाद - अमिताभ त्रिपाठी
मुस्लिम पैगंबर मोहम्मद के 12 डेनिश कार्टूनों के संग्राम में जो मुख्य मुद्दा दांव पर है वह यह कि क्या पश्चिम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सहित अपनी परंपराओं पर कायम रह पायेगा या फिर मुसलमान पश्चिम पर अपनी जीवन पद्धति थोपेंगे. कुल मिलाकर कोई समझौता नहीं हो सकता या तो पश्चिम के लोग अपमान और ईश निंदा सहित अपनी सभ्यता बरकरार रखें या फिर नहीं.
अधिक स्पष्ट रुप में कहें तो क्या पश्चिम उस दोहरे मापदंड के साथ समझौता करेगा जिसमें मुसलमानों को यहूदी , ईसाई, हिन्दू और बौद्ध धर्म के अपमान की छूट होगी लेकिन मुसलमानों को इससे उन्मुक्ति मिलेगी.मुसलमान नियमित तौर पर ऐसे कार्टून प्रकाशित करते हैं जो डेनमार्क से अधिक आक्रामक होते हैं .क्या उन्हें अधिकार है कि ऐसे अपमान करते समय स्वयं उससे बच लें.
जर्मनी के Die Welt समाचार पत्र ने अपने संपादकीय में इस विषय की ओर संकेत किया है .”मुसलमानो के विरोध को गंभीरतापूर्वक लिया जायेगा यदि वे ढोंग नहीं होंगे.जब सीरिया के टेलीविजन ने प्राइम टाइम नाट्य वृत्त चित्र में रब्बियों को नरभक्षी के रुप में चित्रित किया था तब इमाम शांत थे . उस तरह विरोध नहीं किया जैसा डेनमार्क के झंडे में ईसाई क्रॉस लगाने पर किया था.”
यहां पर अधिक गंभीर मुद्दा मुस्लिम ढोंग नहीं वरन् मुस्लिम सर्वोच्चता का भाव है .कार्टूर छापने वाले डेनमार्क के संपादक फ्लेमिंग रोज ने व्याख्या की कि यदि मुसलमान इस बात पर जोर देते हैं कि मैं एक गैर-मुसलमान के नाते उनकी वर्जनाओं के समक्ष समर्पण करुं तो वे मुझे समर्पित होने की बात कर रहे हैं . संक्षेप में राबर्ट स्पेन्सर ने सत्य ही स्वतंत्र विश्व से कहा है कि डेनमार्क के साथ पूर्ण संकल्प के साथ खड़े रहने की आवश्यकता है .सूचना परक ब्रुशेल्स जर्नल ने जोर दे कर कहा है कि हम सभी डेनिश हैं. कुछ सरकारों ने इस संदेश को ग्रहण किया है .
नार्वे - प्रधानमंत्री जेन्स स्टालटेनबर्ग ने टिप्पणी की कि हम माफी नहीं मागेंगे. नार्वे जैसे देश में जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी है वहां एक समाचार पत्र में छपी चीज के लिए हम माफी नहीं मांगेंगे.
जर्मनी - जर्मनी के समाचार पत्रों द्वारा प्रकाशित कार्टून के लिए जर्मनी की सरकार को माफी क्यों मांगनी चाहिए . यह प्रेस की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति है.ऐसा आंतरिक मंत्री बोल्फगांग स्वावबल का मानना है .
फ्रांस - आंतरिक मंत्री निकोलस सारकोजी की टिप्पणी है कि राजनीतिक कार्टून तो स्वभाव से अतिरेकी होते हैं और मैं अतिशय सेन्सरशिप पर अतिरेकी कार्टून को प्राथमिकता देता हूं.
कुछ सरकारों ने गलती करते हुए माफी मांग ली.
पोलैंड - प्रधानमंत्री काजी मियर्ज मारसिनीकीबिज ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाओं का उल्लंघन हुआ है .
इंग्लैंड - विदेश मंत्री जैक स्ट्रॉ ने कहा कि इन कार्टूनों का पुनर्प्रकाशन अनावश्यक था . संवेदनहीन है , अनादर है और गलत है.
न्यूजीलैंड - व्यापार वार्ता मंत्री जिम सूटोन ने इन कार्टूनों को अनुचित उद्देश्य वाला और आक्रामक बताया .
अमेरिका - राज्य विभाग के प्रेस अधिकारी जॉनेल हिरोनिमस ने कहा – इस प्रकार नस्ली या धार्मिक भावना भड़काना किसी भी प्रकार स्वीकार्य नहीं है .
आश्चर्य है कि प्राचीन यूरोप के रीढ़ की हड्डी सीधी हो रही है लेकिन अमेरिकी सरकार की प्रतिक्रिया दुखद रही है .इस प्रतिक्रिया के बाद सरकार को देश के अग्रणी इस्लामवादी संगठन काउंसिल ऑन अमेरिकन इस्लामिक रिलेश्न्स का भी समर्थन मिल गया. वैसे यह कोई आश्चर्य का विषय नहीं है क्योंकि इस्लाम को प्राथिमकता देने का वाशिंगटन का अपना इतिहास रहा है . इससे पहले भी दो मौंकों पर मोहम्मद के अपमान के विषय पर इसने जल्दबाजी दिखाई है.
1989 में सलमान रश्दी ने जब अपने उपन्यास सेटेनिक वर्सेज में मोहम्मद पर व्यंग्य किया और उनके विरुद्ध अयातुल्ला खुमैनी ने मौत का फतवा जारी किया तो तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज एच.डब्ल्यू बुश ने उपन्यासकार के जीवन का साथ देने के बजाए सेटेनिक वर्सेज और फतवा दोनों को आक्रामक करार दे दिया . तत्कालीन राज्य सचिव जेम्स ए बेकर थ्री ने फतवे को दुखद करार दिया .इससे भी बुरा तब हुआ जब 1997 में इजरायल की एक महिला ने मोहम्मद को सुअर के रुप में चित्रित करने वाला एक पोस्टर वितरित किया तो अमेरिका की सरकार ने शर्मनाक तरीके से उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रद्द कर दिया . राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की ओर से राज्य विभाग के प्रवक्ता निकोलस बर्न ने महिला पर प्रश्न उठाते हुए कहा कि या तो वह अस्वस्थ है या दुष्ट है . और यह भी कहा कि इस्लाम पर इस प्रकार अस्वाभाविक हमले के लिए उसपर मुकदमा चलना चाहिए. राज्य विभाग ने संरक्षित अभिव्यक्ति के लिए
आपराधिक मुकदमे की सहमति दे दी. इससे भी आश्चर्यजनक इस प्रकरण पर गुस्से का प्रसंग था . राज्य विभाग की अनेक सप्ताहों की प्रेस ब्रीफिंग को देखते हुए मुझे कभी नहीं लगा कि इसी प्रकार की गाली गलौज वाली भाषा का इस्तेमाल रवांडा की भयानकता के संदर्भ में हुआ हो जहां सैक़डों और हजारों लोगों ने अपनी जान गंवा दी . इसके विपरीत पूरे समय तक बर्न काफी सतर्क और कूटनीतिक बने रहे.पश्चिम की सरकारों को इस्लामी कानून तथा गैर-मुसलमानों के दमन की इसकी ऐतिहासिक भूमिका को देखते हुए शक्तिशाली दिशा लेनी चाहिए.उन्हें एफ्रेम कर्श की आगामी पुस्तक Islamic Imperialism: A History पढ़नी चाहिए. जो लोग स्वतंत्र रहना चाहते हैं उन्हें पूरी तरह डेनमार्क के साथ खड़े रहना चाहिए.
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